आदिवासी ग्रामीणों ने स्वीकारें अहिंसा यात्रा के संकल्प..
गंजेनार/दंतेवाड़ा। छत्तीसगढ़ का दंतेवाड़ा जिला जो भारत की सबसे पुरानी बसाहटों में एक माना जाता है। बस्तर जिले से पृथकीकरण के बाद बीजापुर और सुकमा भी इसी से कुछ ही वर्षों पूर्व विभाजित हुए जिले हैं। एक और जहां आज भी अनेक आदिवासी जनजातियां यहां मुख्य रूप से निवास करती है वही पौराणिक, ऐतिहासिक दृष्टि से भी दंतेवाड़ा अपना अलग ही महत्व रखता है। शहर का नाम इस क्षेत्र की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के नाम पर पड़ा हुआ है। अनुश्रुति है कि सती के 52 अंगों में से एक यहां गिरा और इस शक्तिपीठ का निर्माण हुआ। नक्सल गतिविधियों के कारण भी यह क्षेत्र कुछ चर्चा में बना रहता है। ऐसे विविधता से भरे जिले में शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी अहिंसा यात्रा के साथ सानंद गतिमान है। पदयात्रा द्वारा गांव - गांव में शांति का संदेश देते हुए आचार्यश्री गुरुवार को मोखपाल गांव से 13 किलोमीटर विहार कर गंजेनार के बालक आश्रम में पहुंचे। एक स्थान पर नकुलनार गांव के सरपंच दिलीप चौहान, जिला कांग्रेस उपाध्यक्ष शिवशंकर चौहान ने शांतिदूत का अभिनंदन किया। मार्ग में अनेक स्थानों पर ग्रामीण जन भी आचार्यश्री के आशीर्वाद से कृतार्थ हुए। गंजेनार पदार्पण पर यहां की सरपंच श्रीमती जोगी मरकाम व ग्रामीणों ने आचार्यश्री का स्वागत किया।
इसके बाद प्रवचन सभा में प्रेरणा देते हुए आचार्यश्री ने कहा, भगवान महावीर ने एक बार साधुओं से पूछा प्राणियों को भय किस चीज से लगता है? जब कोई संतोषपूर्ण उत्तर नहीं दे पाए तब भगवान ने कहा प्राणी दुख से भय रखते हैं। मनुष्य भी दुखों से मुक्त होना चाहता है। यह दुख पैदा किसने किया? जीव ने अपने प्रमाद से दुख पैदा किया है। वे बोले, अप्रमाद से दुख दूर हो सकता है। प्रमत्त को चारों ओर से भय होता है। अप्रमत्त को कहीं से भय नहीं सताता। दुख, भय, प्रमाद तीनों का संबंध है। दुख को पैदा करने वाला प्रमाद- मोह है। जहां प्रमाद वहां दुख दोनों में जनक जन्य का संबंध है। दुख से फिर भय उत्पन्न होता है। महाश्रमणजी ने आगे कहा कि दुख, भय और प्रमाद इनकी श्रृंखला को तोड़ना होगा। अप्रमाद से दुख दूर होता है। प्रमाद नहीं तो दुख नहीं और फिर भय भी नहीं। अप्रमाद संवर है और प्रमाद आश्रव। हम प्रमाद की साधना में आगे बढ़ें। मन, वचन व काय योग रूप प्रमाद से बचने का प्रयास करें। व्रत, संकल्पों से इन्हें रोका जा सकता है। नियमों से हम आत्मा का उद्धार करें। अपनी आत्मा का निग्रह, नियंत्रण करें तो दुख मुक्त हो सकते हैं। जीवन में धोखाधड़ी, बेईमानी, हिंसा जैसी दुष्ट प्रवृत्तियों को छोड़ने का प्रयास करें। संयम के अभ्यास और राग-द्वेष से मुक्ति की साधना से दुख मुक्ति हो सकती है। शांतिदूत महाश्रमणजी का प्रवचन श्रवण करने स्थानीय आदिवासी ग्रामीण भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। आचार्यश्री ने उन्हें सभी के प्रति सद्भावना रखने, जीवन में नैतिकता रखने के संकल्प करवाए। इनकी प्रेरणा से कई ग्रामीणों ने उसी क्षण आजीवन शराब पीने का त्याग किया एवं अन्य नशीले प्रदार्थों को छोड़ने का संकल्प किया। पूज्यवर ने सभी को मंगलपाठ फरमा कर आशीर्वाद दिया।